बुधवार, 12 नवंबर 2008

ये मैं हूं

मुश्किलें मुखर हैं, उम्मीदें मौन हैं
ज़िंदगी का हर नया लम्हा पूछता है, बता तू कौन है
दर्द का दोस्त हूं, ग़म का हमसफर हूं
रोज़ मरता हूं मैं, फिर भी 'अमर' हूं

अमर आनंद

3 टिप्पणियाँ:

यहां 12 नवंबर 2008 को 7:51 pm बजे, Blogger kaushal ने कहा…

अमर तो आप हैं ही उसके साथ आनंदित भी रहते हैं आप... आखिर इसका राज क्या है ?

 
यहां 12 नवंबर 2008 को 7:53 pm बजे, Blogger SWETA TRIPATHI ने कहा…

उम्मीदे हमेशा ही मौन रहती है तभी तो वह साक्षात हो पाती है....

 
यहां 5 मई 2010 को 4:38 am बजे, Blogger Sanjeev ने कहा…

vaakai amar hain sir aap, aur aapki yeh rachna to bahut hi umdaa hai!!!

 

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