सोमवार, 6 सितंबर 2010

'अंधेरों' के ख़िलाफ़ एक 'कल्पना'


अंधेरों के ख़िलाफ़ रोशनी को लिए
चमकते रहते हैं बदलाव के दीए
बनती है हक़ीक़त,एक ईमानदार'कल्पना'
हलाहल माहौल का जब वो पीए.

हक़ीक़त की सूरत चाहे जितनी खराब हो, कल्पना का इस पर ज्यादा असर नहीं होता। वो कल्पना ही है, जो हक़ीक़त की पूरी तस्वीर को बदलने की कुव्वत रखती है। इसलिए हमें उस 'कल्पना' के साथ ज़रूर खड़े होना चाहिए, जो देश और समाज की बेहतरी के लिए हो। हम यूपी की पुलिस ऑफिसर बरेली की एसपी ट्रैफिक कल्पना सक्सेना के उस हौसले को सलाम करते हैं, जिसके तहत उन्होंने अपने ही मातहतों के भ्रष्टाचार को खत्म करने का बीड़ा उठाया। ये दीगर है कि अपनी इस मुहिम में उनकी राह में कुछ कांटे आए, और उन्हें अपने भ्रष्ट मातहतों के हमले का शिकार होना पड़ा। ट्रकों से वसूली करते रंगे हाथ पकड़े जाने पर उनके ही सिपाहियों ने गाड़ी चढ़ाकर उनकी जान लेने की कोशिश की, लेकिन ऊपर वाले का शुक्र है कि वो इस हमले के बावजूद पूरी तरह कुशल से हैं। हौसले और मजबूत इरादों के साथ फिर से फर्ज अदायगी के लिए तैयार हैं। सेहत लाभ कर हॉस्पिटल से घर लौटीं कल्पना से बातचीत में उनके मजबूत इरादों की झलक भी मिली।
ऐसे बहुत कम लोग होते हैं जो खतरों की परवाह किए बगैर अपने फर्ज़ पर डंटे होते हैं। अंधेरों की ताकत की परवाह किए मशाल की तरह जल कर समाज को रोशन कर रहे इन लोगों के साथ पूरे समाज को खड़े होना चाहिए। उनकी हौसला अफजाई करनी चाहिए। सूरत बदलने की हसरत रखने वाले लोगों की राह ऐसे ही लोग रोशन करते हैं। लूट, भ्रष्टाचार और दलाली वाले माहौल के बीच हमारे समाज में इस तरह की कोशिशों के दीये विरले ही जलते हैं, और अंधेरे के खिलाफ अपना योगदान देते हैं। देश के हर ईमानदार नागरिक का फर्ज है कि ऐसी कोशिशों की सराहना की जाए। कल्पना की पहल को दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां आवाज़ देती हुईं नज़र आती हैं।

आग में फेंको हमें या ज़हर दे दो हमें
हम तो तैयार हैं, सब इम्तिहानों के लिए
जब से हमने पंख खोले हैं उड़ाने के लिए
हम चुनौती बन गए हैं आसमानों के लिए

अमर आनंद

1 टिप्पणियाँ:

यहां 6 सितंबर 2010 को 6:34 pm बजे, Blogger Udan Tashtari ने कहा…

आग में फेंको हमें या ज़हर दे दो हमें
हम तो तैयार हैं, सब इम्तिहानों के लिए
जब से हमने पंख खोले हैं उड़ाने के लिए
हम चुनौती बन गए हैं आसमानों के लिए


-सही पंक्तियां इस हेतु!

 

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