रविवार, 10 अप्रैल 2011

अन्ना से सीखो बाबा...


बा रामदेव को लगता है अपनी अहमियत का भ्रम हो गया है। एक तरफ तो वो अन्ना की मुहिम का जंतर-मंतर आकर समर्थन करते हैं, तो दूसरी तरफ अन्ना की नीयत पर ही सवाल खड़े करते हैं। राजनीतिक अनुलोम-विलोम करने को बेताब बाबा रामदेव लगता है बयानबाज़ी की सियासी बीमारी से ग्रसित हो गए हैं। योगगुरु के तौर पर देश-विदेश में ख्यात बाबा को न जाने क्या होता जा रहा है। अन्ना की मुहिम का समर्थन करने आए भी तो चौथे दिन। लगता है बाबा को देर से ये ज्ञान हुआ कि अन्ना का साथ देना चाहिए, जबकि सारा देश अन्ना के साथ खड़ा हो चुका था।

लोकपाल बिल के लिए देश के रग-रग में क्रांति की धारा बहा देने वाले अन्ना हजारे की निस्वार्थ भावना से सभी कायल हैं। गरीब से लेकर अमीर तक अन्ना को लोगों ने समर्थन दिया तो सिर्फ इसी वजह से कि वो देश हित में सबकुछ भूलकर खड़े हुए हैं। सचमुच गांधी, शास्त्री और जय प्रकाश के बाद सबसे बड़ा आंदोलन खड़ा किया अन्ना और उनके समर्थकों ने। मुमकिन है कि बाबा रामदेव ने इस भीड़ को देखकर ही अन्ना का साथ देने का मन बनाया हो। ये भी मुमकिन है कि बाबा के सियासी जलसों में शायद ही कभी ऐसी स्वत:स्फूर्त भीड़ जमा हो। अन्ना के नेतृत्व को मीडिया ने भी भरपूर स्थान देकर ये दिखा दिया को वो देश हित के साथ हैं।

बाबा को ये ज़रूर सोचना चाहिए कि अन्ना का विरोध कर वो किसका समर्थन कर रहे हैं और किसे कमज़ोर कर रहे हैं। लगता है अन्ना का विरोध कर बाबा देश की नज़र में अपनी मान-मर्यादा ही खो देना चाहते हैं। अन्ना को गुरु मानने वाले बाबा रामदेव को अन्ना को देश और आम लोगों के हित में उनसे कुछ सीख लेनी चाहिए।

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